परिवारजनों की अनुपस्थिति में भी अब विवाह हो सकेंगे
ग्वालियर । आर्य समाज में होने वाले विवाहों पर लगाई गई शर्तें ग्वालियर स्थित मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की युगल पीठ द्वारा हटा दी गई हैं। अब माता-पिता अथवा परिवारजनों की उपस्थिति के बिना भी आर्य समाज में विवाह हो सकेंगे। बुधवार दिनांक 30 अक्टूबर 2013 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर स्थित युगल पीठ ने आर्य समाज की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि विधियॉं बनाने का काम न्यायालय का नहीं है।
मनुष्य को चाहिए कि वह नासमझी से कभी गो-घात न कर बैठे। जैसे गाय का वध अनुचित है वैसे ही वनिरूपिणी गौ का वध भी अनुचित है। आचार्य की वाणी, ब्राम्हण की वाणी, सन्मित्रों की वाणी, अंतरात्मा की वाणी एवं मनुष्य की अपनी वाक्शक्ति वध अर्थात्त अपेक्षा करने योग्य नहीं है। इसका मानव को आदर एवं सदुपयोग करना चाहिए। जो इस वग्रूपा गौ का वध करता है, ईश्वरीय प्रेरणा की उपेक्षा करता है, वेद-वाणी की निन्दा करता है, सन्तों की वाणी का निरादर करता है, गुरु-वाणी का अपमान करता है, शास्त्रों की वाणी का उपहास करता है, मित्र की वाणी को अनसुना करता है, लिखित वाड्मंय का विनाश करता है, वह मानों गोघात ही करता है।
अलग-अलग कारणों से भारत का नव-निर्माण होता दिखाई दे रहा था, परन्तु अखण्ड भारत की एकता अभी तक छिन्न-भिन्न थी। इस दिशा में प्रयत्न अवश्य हो रहे थे। महर्षि दयानन्द यत्र-तत्र-सर्वत्र उभरती हुई शक्तियों को देख रहे थे। उन्हें ऐसा लगा जैसे एक ही सच्चाई का भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकाश हो रहा हो।
सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत तक आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य रहा। परन्तु आर्यों के आलस्य, प्रमाद और आपस की फूट के रूप में महाभारत के युद्ध के साथ वह स्वर्णिम अध्याय समाप्त हो गया और तत्पश्चात् वैदेशिक दासता का युग आरम्भ हुआ, जिसने विदेशियों की संगति से आर्यों के जीवन को वैदिक मान्यताओं से सर्वथा शून्य कर दिया था।
वेद ही क्यों? इसलिए कि वेद और केवल वेद ही ऐसा एकमात्र ज्ञान है जिसे ईश्वरीय ज्ञान की संज्ञा दी जा सकती है। कारण कि ईश्वरीय ज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि प्रथम वह सृष्टि के आरम्भ में होना चाहिए, दूसरे वह ज्ञान सृष्टि नियम के सर्वथा अनुकूल होना चाहिए,
सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन में योगदान- जिसे सामान्य भाषा में क्रान्तिकारियों का योगदान कहा जाता है, इस दृष्टि में विचारने पर तो आर्य समाज का एक प्रखर राष्ट्रीय स्वरूप हमारे सामने आता है। इस दृष्टि से देखें तो महर्षि दयानन्द सरस्वती के अमर शिष्य क्रान्तिकारियों के पितामह श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा का नाम हमारे सामने आता है।
मानव शरीर के प्रत्येक ऐच्छिक कार्य-कलाप का आधार जैसे कोई मानसिक प्रक्रिया होती है, उसी प्रकार संसार के प्रत्येक सामाजिक संगठन का भी कोई दार्शनिक आधार होता है और उसकी सम्पूर्णता के अनुपात से कार्यकारण सरणि द्वारा कार्य की पूर्ति होती है।उदाहरणार्थ संसार के प्रत्येक मत और सम्प्रदाय हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, कम्युनिष्ट आदि के दार्शनिक आधार पुराण, कुरान, बाइबिल, कैपिटल आदि ग्रन्थ हैं।
समस्त विद्याएं भारत से संसार में फैले विभिन्न मतमतान्तरों का स्त्रोत भारत देश ही रहा है। संस्कृत की महिमा में महर्षि दयानन्द ने दाराशिकोह का एक उदाहरण दिया है। दाराशिकोह लिखता है कि मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषाएं पढी, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूटकर आनन्द नहीं हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब...
स्वामी दयानन्द द्वारा वेद प्रचार स्वामी दयानन्द सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले पड़े थे। पूरे देश का भ्रमण करते हुए मिलने वाले सभी गुरुओं की संगति व सेवा करके अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। वह सिद्ध योगी बने और उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण पद्धति,...
निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...