सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन में योगदान- जिसे सामान्य भाषा में क्रान्तिकारियों का योगदान कहा जाता है, इस दृष्टि में विचारने पर तो आर्य समाज का एक प्रखर राष्ट्रीय स्वरूप हमारे सामने आता है। इस दृष्टि से देखें तो महर्षि दयानन्द सरस्वती के अमर शिष्य क्रान्तिकारियों के पितामह श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा का नाम हमारे सामने आता है।
इनको महर्षि ने ही विदेशों में भेजा था। वहॉं जाकर उन्होंने इण्डिया हाऊस की स्थापना की थी, जो कि बाद में क्रन्तिकारियों का तीर्थस्थल बन गया था। इन्हीं के प्रेरणा पर विनायक दामोदर सावरकर विदेश गये और इनसे ही देशभक्ति की दिशा में निर्देशन प्राप्त करते थे। अण्डमान के कारावास काल में वे कैदियों को सत्यार्थप्रकाश पढाया करते थे। इन्हीं सावरकर के शिष्य मदनलाल ढींगरा थे, जिन्होंने लन्दन में कर्जन वायली को नरक भेजकर भारतमाता के अपमान का करारा सा बदला लिया था। वे स्वयं भी आर्यसमाजी परिवार से ही थे।
Ved Katha Pravachan -6 (Rashtra & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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इसी प्रकार 31 वर्ष तक विदेशों की खाक छानने वाले आजादी के परवाने राजा महेन्द्रप्रताप जी भी आर्यसमाजी वातावरण की ही देन थे। इन्हीं के साथ भारत को स्वतन्त्र कराने की धुन में अपने को विदेशों में लापता कर देने वाले हरिश्चन्द्र (स्वामी श्रद्धानन्द के पुत्र) आर्यसमाजी वातावरण से ही स्वाधीनता की घुट्टी पिये हुए थे। दिल्ली षड्यन्त्र में भाग लेने वालों में भाई बालमुकुन्द तथा महात्मा हंसराज के पुत्र बलराज दोनों ही आर्यसमाजी थे। प्रथम विश्व युद्ध के समय विदेशी सरकार का तख्ता उलटने के लिये गदर पार्टी ने एक योजना बनाई थी। दुर्भाग्यवश भेद खुल जाने से वह सफल नहीं हुई। तब बगावत के अपराध में अनेकों को फांसी कारावास आदि दण्ड दिये गये थे। इनमें पंजाब के मोहनलाल पाठक, राजस्थान के प्रतापसिंह बारहट, जगतराम हरयानवी आदि दृढ आर्यसमाजी ही थे। इनमें प्रतापसिंह बारहट के पिता केशर सिंह वारहट तो ऋषि दयानन्द से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बने थे। इन्होंने राजस्थान में जीवन भर क्रान्ति का प्रबल नाद बजाया। इसी वीर ने कोटा के एक दृश्यचित्र महन्त के यहॉं स्वामी श्रद्धानन्द के दामाद डॉ. गुरुदत्त तथा अन्य क्रान्तिकारियों के साथ डाका डालकर मिलने वाला धन देश की स्वाधीनता के कार्य में लगाने की योजना बनायी थी। इससे इनको काले पानी की सजा हुई थी। इसी प्रकार मैनपुरी षड्यन्त्र के मुखिया पं. गेन्दालाल जी दीक्षित तो प्रत्यक्ष रूप में आर्यसमाजी थे। आप आर्यसमाजी शिक्षा संस्थाओं में अध्यापन कार्य करते रहे। देवतास्वरुप भाई परमानन्द तो उन आर्यसमाजी उपदेशकों में से थे जो कि महर्षि के सन्देश के प्रचारार्थ विदेशों में भी गये थे और देशभक्ति के अपराध में जिन्हें फांसी के बदले काले पानी की यातनाएं सहनी पड़ी। पंजाब केसरी लाला लाजपतराय ऋषि दयानन्द के उन अमर शिष्यों में से थे, जिनके शब्दों में आर्यसमाज उनकी माता और ऋषि दयानन्द उनके पिता थे। इनकी देशभक्ति किसी से छिपी नहीं है।
काकोरी के हुतात्मा- इसी प्रसंग में हमें काकोरी केस के अमर हुतात्मा बिस्मिल, रोशनसिंह तथा विष्णुशरण दुबलिश के रुप में महर्षि के अमर शिष्य आजादी के मोर्चे पर खड़े नजर आते हैं। बिस्मिल तो सत्यार्थप्रकाश से ही जीवन प्राप्त करने वालों में से थे। इनकों सशस्त्र क्रान्ति तथा देशभक्ति की दीक्षा देने वाले स्वामी सोमदेव जी आर्यसमाज के उपदेशक थे, जिन्होंने शाहजहॉंपुर आर्यसमाज मन्दिर में इनको दीक्षा दी थी। बिस्मिल नित्य हवन करने वालों में से थे। ठाकुर रोशन सिंह अपने को आर्यसमाजी मानते थे। विष्णुशरण दुब्लिश आर्यसमाज के सदस्य रहे। फांसी के बाद राजेन्द्र लाहिड़ी की लाश का तो आर्यसमाजियों ने जुलूस निकाला था तथा सम्मानपूवृक उसकी अन्त्येष्टि भी की थी।
भगतसिंह का दल- वीर भगतसिंह के दल में तो आर्यसमाज से प्रेरणा प्राप्त करनेवालों की संख्या और अधिक प्रकट होती है। भगतसिंह के दादा अर्जुनसिंह कट्टर आर्यसमाजी थे। नित्य ही हवन करते थे। आर्यसमाज के उपदेशक भी थे। भगतसिंह के पिता किसन सिंह भी आर्यसमाजी संस्था में पढाते रहे। इनके चाचा अचिन्त्यराम जी आर्यसमाज के सदस्य थे। कमीशन के सामने गवाही देते हुए उन्होंने कहा था कि मैं तो आर्यसमाजी विधि से सुखदेव की लाश की अन्त्येष्टि करता । इसी दल के सदस्य धन्वन्तरी, काशीराम तथा लेखराम प्रखर आर्यसमाजी थे। हंसराज वायरलैस तो सदैव ही अपने को आर्यसमाजी घोषित करते रहे।
1942 की क्रान्ति- देश की स्वाधीनता के हेतु लड़े जाने वाले इस संग्राम की लम्बी यात्रा में अन्तिम पड़ाव सन् 1942 की क्रान्ति के रूप में आता है। इसमें भी महर्षि के अनुयायियों ने पूर्ववत ही बढ-चढकर भाग लिया। डीएवी कालेज लाहौर में पुलिस ने छात्रों पर निर्ममता से गोलियॉं चलायी थीं। गुरुकुल डौरली (मेरठ) पर तालाबन्दी कर दी थी। आर्यसमाज नरेला में हवन कर रहे 70 आर्य समाजियों को पकड़कर जेल में डाल दिया था। नागपुर में श्री कालुराम नामक एक आर्यवीर को फांसी दी गयी थी। स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी को पंजाब के गवर्नर का वध करने के आरोप में नजरबन्द कर दिया था। स्वामी ईशानन्द, स्वामी धर्मानन्द तथा इनके पुत्र हरिदत्त को लालकिले के तहखाने में बन्द कर दिया था। इस आन्दोलन में भी आर्यसमाज किसी से पीछे नहीं रहा है।
आजाद हिन्द सेना- नेता जी सुभाष के द्वारा आजाद हिन्द सेना का निर्माण और उसका कार्य इस इतिहास में एक गौरवशाली स्वर्णिम अध्याय है। उक्त सेना के तीन प्रमुख नायकों में से सहगल आर्यसमाजी परिवार की ही देन थे। उनके पिता महाशय अछरुराम जी जाने माने आर्यसमाजी तथा कानूनविद थे, जिन्होंने जानबूझकर ही अपने बेटे को इस भट्टी में झोंका था। जब लालकिले में इस सेना पर अभियोग चला, तब इनके बचाव पक्ष के वकीलों की जो कमेटी बनी थी, बख्शी टेकचन्द तथा दीवान बदरीदास के रूप में आर्यसमाज ने योगदान करके अपनी राष्ट्रनिष्ठा को व्यक्त किया था। इसके अतिरिक्त सामान्य सैनिक के रूप में इस सेना में भर्ती होकर योगदान करने वाले आर्यसमाजियों की संख्या तो अनगिनत है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सशस्त्र क्रान्तिकारी दल के माध्यम से भी आर्यसमाज देश की स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करने वाले देशभक्तों की मुहिम में अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखायी देता है। जिसका फल 15 अगस्त 1947 की स्वतन्त्रता के रूप में सामने आता है।
शिक्षा संस्थाओं के द्वारा जागरण- लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी राज्य की जड़ें भारत में दृढ करने के लिए जिस अंग्रेजी शिक्षा का प्रचलन किया, सर्वप्रथम ऋषि दयानन्द और उनके परम शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के द्वारा उसे छिन्न-भिन्न करने का स्तुत्य राष्ट्रीय कार्य किया था। इसका आरम्भ गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना से होता है। ये संस्थाएं सर्वथा ही सरकारी प्रभाव से मुक्त थीं। इनकी शिक्षा, पाठ्यक्रम, अध्यापक, उत्सवों के आयोजनादि सभी स्वतन्त्र थे। वहॉं इतिहास पढाने का तरीका देशभक्ति के भावों को उद्दीप्त करने वाला होता था। वहॉं छात्र अंग्रेजी विरोधी बातें प्रत्यक्ष किया करते थे। प्रखर देशभक्त समय-समय पर ठहर कर विदेशी सरकार पर अनेक प्रहार किया करते थे। इसी कारण एक बार बिजनौर के कलेक्टर ने गुरुकुल में शस्त्रों के छिपे होने के सन्देह में छापा भी मारा था।
नगरों से दूर एकान्त जंगल में होने के कारण भी सरकार इनको एक लम्बे अरसे तक सन्देह की दृष्टि से देखती रही। यह हाल सभी गुरुकुलों का था। इसी प्रकार डीएवी कालेजों को हम देख सकते हैंऽ वे अंग्रेजी सरकार के प्रभाव से सर्वथा ही मुक्त थे। इन कालेजों ने स्वयं अपना सम्बन्ध विश्वविद्यालय के साथ करने में अपमान समझा था अत: उत्तम परिणाम पर डीपीआई के द्वारा बधाई के पत्र के धन्यवादात्मक उत्तर को ही प्रार्थना पत्र मानकर कालेज की सम्बद्धता स्वीकार कर ली गयी थी। इस कालेज के छात्रावास में जब एक अंग्रेजी साबुन कम्पनी का एजेण्ट आया और उसने छात्रों को मुफ्त साबुन दिया, तब देशभक्त छात्रों ने वे सारी टिक्कियॉं फेंक दीं। यह देशभक्ति का एक नमूना था। छात्र आर्यसमाज जा रहे थे। जब एक अंग्रेज के बच्चे ने अपना घोड़ा दौड़ाकर इनकी पंक्ति को तोड़ दिया, तब वार्डन के फटकारने पर दूसरे दिन भी वैसा ही करने पर उस अंग्रेज पुत्र को उस छात्रनेता ने सड़क पर सबके सामने अपने जूते से पीटा था, जबकि उस समय अंग्रेज के सामने मुंह खोलना मौत को बुलाना होता था। यह सब कुछ ऋषि दयानन्द तथा आर्यसमाज से प्राप्त देशभक्ति की शिक्षा का प्रभाव था। कानपुर डीएवी कालेज तो देशभक्त क्रान्तिकारियों का अड्डा था। शालिगराम शुक्ल इसके छात्रावास में ही पुलिस के साथ गोलियों से मुठभेड़ करते हुए शहीद हुए थे। लगभग यही हाल उस समय के सारे डीएवी कालेजों का था।
कुछ अन्य संकेत- इतिहास में मिलने वाले निम्न संकेतों से भी हम आर्यसमाज की स्वाधीनता के प्रति आस्था समझ सकते हैं। अंग्रेजी काल में सैनिकों को आर्यसमाज में जाने से रोका जाता था। उनके यज्ञोपवीत उतरवाये जाते थे। रोहतक में आर्यसमाज मन्दिर जब्त करने की घोषणा भी कर दी गयी थी। आर्यसमाजी उपेदशक दोलतराम जी को सैनिकों में धर्मप्रचार करने पर मुकद्दमा चलाकर दण्ड दिया गया था। करनाल के जिलाधीश ने नगर के धनी जनों को अपने यहॉं आर्यसमाजियों को ठहराने का निषेध किया था।
लाहौर के जिलाधीश ने स्वामी श्रद्धानन्द जी से कहा था कि आर्यसमाज पोलिटिकल संस्था है। 1910 में वैलैण्टाइन शिरोल ने "इण्डियन अरनेस्ट" पुस्तक में आर्यसमाज का अंग्रेज विरोधी वर्णन किया था। लाहौर के सिविल मिलिटरी गजट पत्र में भी आर्यसमाज को अंग्रेजो का राज्य उखाड़कर हिन्दू राज्य की स्थापना करने वाला कहा गया था। इसके अतिरिक्त देशभक्त महापुरुषों में से अधिकांश ने आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द को देशभक्ति एवं स्वाधीनता के पुजारी के रूप में ही स्वीकार किया है। - सत्यप्रिय शास्त्री
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निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...