अलग-अलग कारणों से भारत का नव-निर्माण होता दिखाई दे रहा था, परन्तु अखण्ड भारत की एकता अभी तक छिन्न-भिन्न थी। इस दिशा में प्रयत्न अवश्य हो रहे थे। महर्षि दयानन्द यत्र-तत्र-सर्वत्र उभरती हुई शक्तियों को देख रहे थे। उन्हें ऐसा लगा जैसे एक ही सच्चाई का भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकाश हो रहा हो।
उनकी प्रतिभा केवल भेदों को देखने और काट-छॉंट करने वाली न थी। वह बुराइयों को दूर करके बची हुई भलाई के आधार पर सारी मनुष्य जाति को एकता के सूत्र में पिरोना चाहते थे। वह चाहते थे कि देश के भिन्न-भिन्न धार्मिक नेताओं को एक मंच पर लाकर उन्हें ऐसी प्रेरणा करें, जिससे उनकी विचारधारा में एकता आ जाए और वे सब मिलकर सुधार की दिशा में आगे बढें। वह उपयुक्त अवसर की तलाश में थे। जहॉं चाह वहॉं राह। उन्हें राह मिल गई।
जनवरी सन् 1877 में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल और वायसराय लार्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किये जाने के उपलक्ष्य में दिल्ली में एक शानदार दरबार का आयोजन किया। उस दरबार में यद्यपि ब्रिटिश सरकार की शक्ति का प्रदर्शन था, किन्तु इस दरबार में राजकुल और शासन से सम्बन्ध रखने वाले प्रमुख व्यक्तियों के अतिरिक्त भारत के प्रमुख समाज-सुधारक नेता भी पधारे थे। सौभाग्यवश इन समाज-सुधारकों से विचार-विमर्श तथा राष्ट्रीय एकता के प्रयास की इच्छा से महर्षि दयानन्द भी यहॉं पहुंच गये। महर्षि ने इन समाज सुधारकों को दिल्ली में जहॉं वे ठहरे हुए थे वहॉं अपने निवास पर आमन्त्रित कर प्रथम एकता-सम्मलेन किया। भारत के इतिहास में ऐसा एकता-सम्मेलन महर्षि दयानन्द से पूर्व कभी किसी ने न बुलाया और न बुलाने का विचार ही किया।
"कलकत्ता आर्य समाज का इतिहास" के अनुसार 14 जनवरी सन् 1877 के अंक में कलकत्ता से प्रकाशित "इण्डियन मिरर" ने लिखा था- "पण्डित दयानन्द सरस्वती के निवास पर एक कान्फै्रं स इसतिए हुई कि भारत के वर्तमान सुधारकों में एकता-सम्बन्ध स्थापित किया जाए। हमारे मिनिस्टर श्री केशवचन्द्र सेन भी मौजूद थे। यदि भिन्न-भिन्न स्थानों के सुधारकों में एकता का सम्बन्ध सच्ची और व्यावहारिक नींव पर स्थिर हो जाए, तो इसमें सन्देह नहीं कि बहुत भारी और नेक परिणाम पैदा होगें। हम इसकी सफलता की प्रार्थना करते हैं।" इस सम्मेलन में आमन्त्रित नेताओं में प्रमुख थे- ब्रह्मसमाज के नेता केशवचन्द्र सेन कलकत्ता से, लाहौर के प्रमुख ब्रह्मसमाजी श्री नवीनचन्द्र राय, मुसलमानों के सर्वाधिक प्रतिष्ठित नेता सर सैय्यद अहमद खॉं, पूना से रायबहादुर श्री गोपालराव हरि देशमुख, प्रसिद्ध वेदान्ती मुन्शी कन्हैया लाला अलखधारी लुधियाना (पंजाब से), मुन्शी इन्द्रमणि मुरादाबाद आर्यसमाज से, बाबू हरिश्चन्द्र चिन्तामणि आर्यसमाज बम्बई से और पण्डित मनफूल आदि जम्मू-कश्मीर से। महर्षि दयानन्द सरस्वती के साथ मुरादाबाद निवासी राजा उपाधिधारी कलैक्टर श्री जयकृष्ण दास सी.आई.ई. (प्रथम सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशक) आदि अनेक प्रमुख लोग भी थे। इस सभा का सम्पूर्ण विवरण कहीं नहीं मिलता। परन्तु इतना निश्चय है कि उसमें बड़ी स्पष्टता और उदारता के साथ विचार हुआ था। महर्षि दयानन्द ने अपना विचार रखा था कि यदि हम सब मिलकर एकमत हो जाएं और एक ही रीति से देश के सुधार की दिशा में काम करें, तो देश शीघ्र सुधर सकता है। देश की एकता और सुधार के सम्बन्ध में सब एकमत थे। देश का लोकमत भी उनके साथ था।
लाहौर के "बिरादरे हिन्द" ने भी इस सम्मेलन के बारे में लिखा था- "हम दिली मुसर्रत के साथ इस बात का इजहार करते हैं कि दिल्ली दरबार की तकरीर में हिन्दुस्तान के मशहूर और लायक रिफार्मर्स (इसलाह कुनन्दगान) ने पण्डित दयानन्द सरस्वती के मकान पर एक जलसा खास इस गरज से मुनक्कद किया कि हमारी असल अलगताई इन मजहब से एक ही है। बेहतर हो कि आइन्दा से बजाय अलहदा-अलहदा काम करने के कुछ मुत्ताफिक होकर कौम की इसलाह में मसरूफ हों और आपस में अगर किसी तरह का इख्तलाफ हो, तो उसका भी बाहमी तन्कीह के साथ फैसला कर लें।" (बिरादरे हिन्द, लाहौर, जनवरी 1877)। इतना सब कुछ होते हुए भी यह सभा एकमत न हो सकी। इसकी असफलता के बारे में इस सभा के एक सभासद् बाबू नवीनचन्द्र राय ने 8 वर्ष बाद अपने पत्र "ज्ञान प्रदीप" में लिखा था- "फिर दूसरी बार हम लोगों की मुलाकात स्वामी जी से दिल्ली में कैसरे हिन्द के दरबार में हुई। वहॉं उन्होंने बाबू केशवचन्द्र सेन और श्री हरिश्चन्द्र चिन्तामणि को आमन्त्रित किया और हम लोगों से प्रस्ताव किया कि हम लोग अलग-अलग धर्मोपदेश न करके एकता के साथ काम करें, तो अधिक फल होगा। पर मूल विश्वास में हम लोगों का उनके साथ मतभेद था। इसलिए जैसा वह चाहते थे, एकता न हो सकी।" (ज्ञानप्रदीप भाग-4 नं. 31 जनवरी 1885) इस सम्मेलन की असफलता के कारण का स्पष्ट उल्लेख बाबू केशवचन्द्र सेन की जीवनी में मिलता है- "बाबू केशवचन्द्र सेन जब फिर दिल्ली में स्वामी दयानन्द जी से मिले, तो उन्होंने कहा कि वह बहुत सी बातों में उनसे सहमत हैं। किन्तु एक बात उनकी समझ में नहीं आती कि वेद का सहारा लिये बिना धार्मिक शिक्षा कैसे दी जा सकती है।"
इस प्रकार इस सम्मेलन का जहाज वेद की अपौरुषेयता और निर्दोषता पर आकर अटक गया। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि बाबू केशवचन्द्र सेन ने एक बार महर्षि दयानन्द से कहा था कि यदि आप वेद की बात न कर कर यह कहें कि मैं जो कुछ कहता हूँ वह ईश्वर का सन्देश है, तो लोग आसानी से आपकी बात मान लेंगे और आपको अपने एकता-प्रयासों में सफलता मिल जायेगी। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इसे स्वीकार नहीं किया। हजरत मुहम्मद व ईसामसीह की तरह वह अपने आपको खुदा का पैगम्बर कैसे मान सकते थे? सर सैय्यद अहमद खॉं महर्षि दयानन्द का आदर ही नहीं करते थे, बल्कि यह भी मानते थे कि जिस प्रकार स्वामी जी वेदों का अर्थ करते हैं, वही ठीक है। इतना ही नहीं, स्वामी जी की अर्थ करने की नीति पर ही उन्होंने कुरान के अर्थ किये जाने पर भी बल दिया।
तीन वर्ष बाद दिसम्बर 1880 में महर्षि दयानन्द ने सैंट पीटर्स चर्च आगरा के बिशप महोदय से कहा कि यदि हम, आप तथा अन्य धर्मों (सम्प्रदायों) के नेता केवल उन बातों का प्रचार करें, जिन्हें सब मानते हैं, तो एकता स्थापित हो सकती है। फिर हमारे मुकाबले पर नास्तिक ही रह जाएंगे। यह उनका अन्तिम प्रयास था, क्योंकि तीन वर्ष बाद सन् 1883 में वह अपने मोक्षधाम चले गये। किन्तु प्रयत्नों के विफल होने पर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता, कि वह ईमानदारी से भारत की एकता में विश्वास रखते थे और इसके लिए वह धार्मिक नेताओं के परस्पर मतभेद दूर करना आवश्यक समझते थे। महर्षि दयानन्द के सम्पर्क में आने वाले सभी लोग उनकी सद्भावना से पूरी तरह अवगत थे।
उन्होंने गिरजे में आकर बाईबिल का खण्डन किया और जहॉं भी अवसर मिला सत्य-निर्णयार्थ कुरान की भी भरपूर आलोचना की तथा अनेक प्रबुद्ध ईसाई और मुसलमान उनके भक्त थे। लाहौर में उनके प्रचार का केन्द्र डॉ. रहीम खॉं की कोठी बनी, तो बम्बई में आर्यसमाज मन्दिर काकड़वाड़ी (गिरगांव मुहल्ला, भारत का प्रथम आर्य समाज) के निर्माण में एक मुसलमान रहमतुल्ला ने न्यासी बनकर उदारतापूर्वक सहयोग दिया। आर्यसमाज के प्रवर्त्तक का ध्येय सभी सम्प्रदायों में व्याप्त कुरीतियों को दूर कर सच्चे धर्म में आस्था जगाना था, किसी से घृणा पैदा करना नहीं था। उत्तर प्रदेश के शाहजहॉंपुर जिले में चान्दपुर नामक स्थान में एक बहुत बड़ा मेला लगता है। महर्षि दयानन्द ने सभी मतों के प्रतिनिधियों को बुलाकर एक उच्चस्तरीय सम्मेलन यहॉं भी किया था। इसमें मुसलकानों के प्रतिनिधि मौलवी मुहम्मद कासिम और सैयद अब्दुल मंसूर तथा ईसाइयों की ओर से पादरी स्काट, नोबिल, पार्कर व जान्सन प्रतिनिधि रूप में पहुँचे थे। सम्मेलन के प्रमुख विचारणीय विषयों में राष्ट्रीय एकता के लिए कुछ धार्मिक विषयों पर विस्तार से चर्चा चली।
राष्ट्रीय एकता का जो स्वप्न आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अब से लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व देखा था, उसकी पूर्ति में यदि उस समय के शासकों (रियासती राजाओं) ने भी उनका सहयोग किया होता, तो आज देश का चित्र ही दूसरा होता, पर ब्रिटिश शासन का हित तो भारतवासियों को आपस में लड़ाने में ही था। आर्यसमाज ने राष्ट्रीय एकता के लिए जो प्रयास किये, उनमें महिला-जागरण, पिछड़े क्षेत्रों और आदिवासी क्षेत्रों में प्रचार आदि के अतिरिक्त धार्मिक क्षेत्र में वैचारिक क्रान्ति लाना भी था।
महर्षि दयानन्द के गुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द जी के जीवन को पढने से पता चलता है कि उन्होंने भी बहुत पहले इसी प्रकार की एक सभा का आयोजन सन् 1861 के प्रारम्भ में करना चाहा था। उस समय देशी रियासतों के राजाओं का एक दरबार आगरा में हुआ था, जिसमें बहुत-से राजा-महाराजा उपस्थित हुए थे। जयपुर के रामसिंह उनमें प्रमुख थे। दण्डी स्वामी गुरु विरजानन्द जी सरस्वती ने उनके सामने यह विचार प्रस्तुत किया था कि एक सार्वभौम सभा का आयोजन किया जाए, जिसमें देश-भर के पण्डित आमन्त्रित किये जाएं। वे इस विषय पर विचार करें कि कौन से ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थ हैं, जिन्हें सत्यासत्य एवं धर्माधर्म का निर्णय करने के लिए प्रमाण माना जा सकता है। राजा रामसिंह ऐसी सार्वभौम सभा का सारा खर्च उठाने को तैयार थे, परन्तु अनेक कारणों से इस सभा का आयोजन नहीं किया जा सका। इसके 16 वर्ष बाद गुरुवर विरजानन्द के शिष्य महर्षि दयानन्द ने वैसा ही प्रयास किया, पर वह पूर्ण रूप से सफल न हो सका। एक धर्म की निश्चायक प्रक्रिया से अवश्यमेव आज भी राष्ट्रीय एकता अधिक सुदृढ हो सकती है। - प्रतापसिंह शास्त्री
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कोई आपके साथ बुराई करता है और आप भी उसका बदला बुराई से देते हैं तो यह जंगलीपन है। कोई आपके साथ उत्तम व्यवहार करता है और बदले में आप भी उत्तम व्यवहार करते हैं, यह मनुष्यता है।
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स्वामी दयानन्द द्वारा वेद प्रचार स्वामी दयानन्द सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले पड़े थे। पूरे देश का भ्रमण करते हुए मिलने वाले सभी गुरुओं की संगति व सेवा करके अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। वह सिद्ध योगी बने और उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण पद्धति,...
निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...