सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत तक आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य रहा। परन्तु आर्यों के आलस्य, प्रमाद और आपस की फूट के रूप में महाभारत के युद्ध के साथ वह स्वर्णिम अध्याय समाप्त हो गया और तत्पश्चात् वैदेशिक दासता का युग आरम्भ हुआ, जिसने विदेशियों की संगति से आर्यों के जीवन को वैदिक मान्यताओं से सर्वथा शून्य कर दिया था।
इस प्रकार दीन हीन हुई आर्य जाति किसी प्रखर सुधारक की प्रतीक्षा में ही थी कि ऐसे काल में गुजरात के टंकारा नगर में 1824 ई. में मूलशंकर (ंऋषि दयानन्द सरस्वती) का प्रादुर्भाव हुआ। वे शैशव से ही सब प्रकार के रूढिवाद के घोर विरोधी थे। इसी चिन्तन प्रणाली और कार्य पद्धति ने उन्हें बालक मूलशंकर से उठाकर देशोद्धारक ऋषि दयानन्द सरस्वती के रूप में विश्व के मंच पर ला बिठाया, जिसका प्रमाण उन्होंने अपने आगामी जीवन में भारत का सर्वविध कायाकल्प करके प्रस्तुत किया। जब वे घर से निकले तब भारत में राजनैतिक जागरण के बीज फूटने के लिए प्रयत्नशील हो रहे थे। उनके दीक्षा गुरु स्वामी पूर्णानन्द जी राजनैतिक जागरण के कार्यों में संलग्न थे।
Ved Katha Pravachan - 7 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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1857 और ऋषि दयानन्द- विरजानन्द जी ने तो तत्कालीन देशभक्त नेताओं से गुरु का पद भी प्राप्त कर लिया था। 1857 की क्रान्ति के हेतु आयोजित गुप्त सभाओं में वे मार्गदर्शन करते थे। ऋषि के जीवन चरित्र से ज्ञात होता है कि तीव्र विद्या पिपासु दयानन्द जी को विरजानन्द जी का पता 1856 में लगता है लेकिन वे उनके पास 1860 में पहुंचे हैं। यह विलम्ब क्यों? ऋषि का स्वलिखित चरित्र भी तीन वर्षो पर मौन है। चरित्र के अनुसार इस काल में उनके भ्रमण का क्षेत्र कानपुर के आसपास रहा है। उस समय उक्त क्रान्ति की गुप्त तैयारियॉं की जा रही थीं। वैसे भी दयानन्द की आयु उस समय 33 वर्ष के लगभग थी। यह अवस्था स्वभावत: ही उग्रता को पसन्द किया करती है। वैसे भी ऐतिहासिकों के मतानुसार उक्त क्रान्ति का सन्देश फैलाने में भी मठ के साधुओं का सक्रिय योगदान रहा है।
साहित्य द्वारा जागृति- 1875 वाले सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में उन्होंने नमक तथा जंगली लकड़ी पर लगे प्रतिबन्ध की कठोर शब्दों में भर्त्सना की थी। जबकि कांग्रेस ने इसे 1931 में अपने आन्दोलन का मुख्य मुद्दा बनाकर अंग्रेजी सरकार से संघर्ष किया था। 1882 में ही महर्षि ने अंग्रेजी अदालतों पर अविश्वास प्रकट कर दिया था। जबकि कांग्रेस के सामने यह तथ्य 1919 में तिलक द्वारा मि. शिरोल पर चलाये गये मानहानि के अभियोग के निर्णय से आया था। विदेशी राजा की अपेक्षा स्वदेशी राजा की उत्तमता, अंग्रेजों द्वारा भारत में जूते को अदालत में न घुसने देने की पीड़ा, गोरक्षा के प्रश्न पर तत्कालीन सरकार की आलोचना , जबकि इसी प्रश्न पर 1857 की क्रान्ति हुई और इसी आधार पर 1872 में नामधारियों के गुरु रामसिंह को जिलाबदर किया गया था। गोरक्षा और सरकार के विरुद्ध विद्रोह पर्यायवाची बन गये थे। ऐसे समय में गोहत्या की सारी जिम्मेदारी सरकार पर डालना, स्तुति प्रार्थनोपासना की पुस्तक आर्याभिविनय में विदेशी राज से छुटकारे की प्रार्थनाएं करना, आर्यो के प्राचीन गौरव का विस्तार से वर्णन ये सभी लेख महर्षि दयानन्द की उत्कट देशभक्ति एवं राजनैतिक पुनर्जागरण के महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। जिन्होंने आने वाले समय में भारत को वैचारिक क्रान्ति में अनुपम योगदान देकर आगामी स्वतन्त्रता संग्राम लड़ने के लिए सशक्त तथा समुद्यत किया था। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता है। इसी प्रकार कांग्रेस के काल में देशभक्तों की पहचान खादी का वेश रहा था। परन्तु महर्षि दयानन्द के जो वस्त्र अजमेर में रखे हैं, वे सभी विशुद्ध देशी खादी के ही हैं। जबकि कांग्रेस के मंच पर खादी का सबसे प्रथम क्रियात्मक प्रयोग 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन के समय दृष्टिगोचर हुआ था। कलकत्ता में तत्कालीन वायसराय नार्थब्रुक से महर्षि दयानन्द की भेंट होने, वायसराय द्वारा महर्षि से अपने भाषणों के आरम्भ में परमेश्वर से अंग्रेज राज्य की भारत में स्थिरता के हेतु प्रार्थना का संकेत देने पर महर्षि का न केवल दृढतापूर्वक इन्कार करना, प्रत्युत उक्त साम्राज्य के जल्दी ही दूर होने की अपने हार्दिक भाव की व्यंजना भी दयानन्द सरसव्ती की ज्वलन्त राष्ट्रभक्ति का वज्र प्रमाण है। अपने जीवनकाल में ऋषि का सभी आर्यसमाज सैनिक आवासों वाले नगरों में ही स्थापित करना कोई अचानक संयोगमात्र नहीं है। अपने जीवन के अन्तिम काल में राजस्थान के राजाओं से निकट सम्पर्क करना, वहॉं के स्वाधीनता प्रेमी रक्त में अंग्रेजी राज्य से छुटकारा प्राप्त करने के गुप्त अभिप्राय का सूचक है ।
मृत्यु का रहस्य- तत्कालीन सरकार ने रियासतों के राजाओं विशेषकर महर्षि प्रभावाधीन राजाओं को एक परिपत्र प्रेषित किया, जिसका मुख्य ध्येय महर्षि के प्रभाव से उनको मुक्त करना प्रतीत होता है। इसमें कुछ प्रश्नों के उत्तर मांगे थे जोकि रियासत के अधिकार से सम्बन्धित थे। महर्षि ने जोधपुर की विवशता को देखते हुए उसका उचित उत्तर लिखवा दिया। ब्रिटिश सरकार के द्वारा उत्तरदाता का चित्र मांगने पर राजा ने सरलता से महर्षि का चित्र भेज दिया। कहते हैं कि इस पर राजस्थान के पोलिटिकल एजेण्ट पर दबाव पड़ा कि तुम्हारे राज्य में ऐसा खतरनाक व्यक्ति घूम रहा है और तुम उसका कोई इलाज नहीं सोचते। इससे पूर्व वायसराय लन्दन को अपनी राय भेज चुका था, जिसमें महर्षि को एक विद्रोही फकीर कहा गया। इसके साथ ही डॉ. अली मर्दान खॉं के उपचार काल में महर्षि की अवस्था का सुधरने की अपेक्षा निरन्तर बिगड़ती जाना यही सिद्ध करता है कि वे अंग्रेज और मुस्लिम शक्तियों के सम्मिलित षड्यन्त्र का शिकार हुए थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में दोनों शक्तियों का गठजोड़ देशभक्त शक्तियों की समाप्ति हेतु पदे-पदे दृष्टिगोचर होता है। अन्त में तो देश विभाजन के रूप में उसका बीभत्स रूप सामने आता है। इस सम्पूर्ण काण्ड को वह (राजा जोधपुर) विवश हुआ देखता रहा। क्योंकि उसे पता था कि यदि उसने सत्यता प्रकट करने का दुस्साहस किया तो अंग्रेज सरकार किसी न किसी बहाने गद्दी से उतार कर खात्मा कर देगी। अन्यथा राजा के सामने एक वेश्या और पाचक की क्या हिम्मत थी कि राजा के गुरु और मान्य अतिथि को जहर देकर मार दिया जाता। वेश्या को तो अपना पाप छिपाने का बहाना बनाया गया था। अजमेर निवासी श्री भागराम जी जो कि महर्षि के ऊपर विशेष गुप्तचर छोड़े गये थे का कहना था कि यदि इण्डिया आफिस में स्थित तत्कालीन वायसरायों और गुप्तचरों के दस्तावेजों को पढा जाये तो महर्षि दयानन्द की मृत्यु का वास्तविक रहस्य सामने आ सकता है। इन सब प्रमाणों से पूर्वाग्रह मुक्त सत्यान्वेषी पुरुष इस परिणाम पर पहुंचेगा कि महर्षि को अंग्रेज सरकार ने अपने साम्राज्य का घोर विरोधी मानकर विशाल गुप्त षड्यण्त्र के द्वारा जहर देकर उनका बलिदान कर दिया।
इस प्रकार 1857 के पश्चात् भारत का राजनैतिक दृष्टि से पुनर्जागरण लाने के कारण महर्षि दयानन्द सरस्वती का बलिदान हुआ था। शनै: शनै: आज यह सत्य संसार के समक्ष मुखरित होता जा रहा है कि महर्षि दयानन्द के पश्चात् उनके अनुयायियों ने कांग्रेस के मंच को, जिसको एक कूटनीतिज्ञ, अंग्रेज ने ब्रिटिश सरकार के इंगित और आयोजन के अधीन उसकी जड़ों को सशक्त करने के उद्देश्य से स्थापित किया था, राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर उसके माध्यम से महत्वपूर्ण प्रशंसनीय कार्य किया। भारत की स्वाधीनता के हेतु कांग्रेस के मंच से दो प्रकार की विचारधाराओं ने अपने-अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। एक गान्धी जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक सत्याग्रहों के द्वारा और दूसरे सशस्त्र क्रांतिकारी आन्दोलनों के जरिए। उक्त दोनों ही मोर्चो पर महर्षि दयानन्द के अनुयायी प्रथम पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।
अहिंसात्मक सत्याग्रह द्वारा योगदान- राजनैतिक स्वतन्त्रता के क्षेत्र में गान्धी जी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले माने जाते हैं। गोखले को यह विचार अपने आचार्य महादेव गोविन्द रानाडे से प्राप्त हुआ। परन्तु रानाडे तक यह विचार उनके गुरु महर्षि दयानन्द सरस्वती से पहुंचा है। पूना में 1875 में इनका मिलन हुआ था। घनिष्ठता यहॉं तक बढी कि महर्षि ने रानाडे को अपनी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा में नियुक्त किया था। इस प्रकार गान्धी जी को यह विचार मूलत: महर्षि दयानन्द से ही मिला है। यह भिन्न बात है कि गान्धी जी के हिन्दू मुस्लिम एकता विषयक विचार महर्षि से भिन्न थे। यह गान्धी जी के विदेशी शिक्षा से प्राप्त चिन्तन पर आधारित थे और उतने ही अंश में वे सदा असफल रहे। अस्तु। गान्धी जी को महात्मा पद से विभूषित करने वाले अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी थे, जिनका कांग्रेस के मंच पर भी समान प्रभाव रहा है। स्वाधीनता की तीन मूर्तियों में से लाला लाजपतराय तो महर्षि के प्रकट शिष्य थे। आर्यसमाजी नेता इन्द्र विद्यावाचस्पति का योगदान भी किसी से कम नहीं। देशबन्धु गुप्ता, घनश्याम सिंह गुप्त, भीमसेन सच्चर, महाशय कृष्ण एवं उनके दोनों पुत्र, महाशय खुशहालचन्द्र (स्वर्गीय महात्मा आनन्द स्वामी) तथा उनके सभी पुत्र, सिन्ध के ताराचन्द, हैदराबाद के पं. नरेन्द्र, विनायकराव विद्यालंकार, उत्तर प्रदेश के चौ. चरणसिंह, चन्द्रभानु गुप्त, गोविन्द बल्लभ पन्त, लालबहादुर शास्त्री, राजस्थान के चान्दकरण शारदा, कर्मवीर श्री जियालाल, हरियाणा के आचार्य भगवानदेव, स्वामी रामेश्वरानन्द, पंजाब के चौ. देवव्रत, वैद्य रामगोपाल, अजीतसिंह सत्यार्थी, देशप्रसिद्ध वक्ता कुं. सुखलाल आर्य मुसाफिर, बिहार के चौ. वेदव्रत (स्वामी अभेदानन्द) और इसी प्रकर डॉ. गोकुलचन्द्र नारंग, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, श्री देवीचन्द, स्वामी आत्मानन्द, अलगुराय शास्त्री, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक इत्यादि सभी लोग आर्य समाज से स्वाधीनता की प्रेरणा प्राप्त करते रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि दादाभाई नौरोजी भी सत्यार्थप्रकाश पढकर उससे स्वाधीनता की प्रेरणा लेते थे। - सत्यप्रिय शास्त्री
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From the beginning of creation to the Mahabharata, there was a universal Chakravarti kingdom of Aryans. But the golden chapter came to an end with the war of Mahabharata in the form of the Aryan's laziness, pomp and interchange, and then began the era of foreign slavery, which, with the association of foreigners, brought the life of the Aryans completely void of Vedic beliefs.
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निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...