आज विज्ञान का युग है। प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान उन्नति एवं प्रगति कर रहा है। मानव प्रकृति पर विजय के लिए सतत प्रयत्नशील है। विज्ञान ने मानव को शारीरिक सुख एवं भोग-विलास के अनेक साधन दिए हैं। इन्हें पाकर मनुष्य मानवीय मूल्यों से हटकर उन्मत हो रहा है। इतना सब कुछ होते हुए भी वर्तमान मानव जीवन अनेक द्वन्द्वों-पीड़ाओं, दु:खों, संघर्षों, चिन्ताओं, विकारों और अभावों से भरा दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अतृप्ति, अभाव, चिन्ता के प्रश्न-चिन्ह लगे हुए हैं। कोई न कोई कमी और इच्छा उसे बेचैन किए रहती है। जीवन के चारों ओर कलह, अशान्ति, विद्रोह, संघर्ष एवं द्वेष ही दिखाई देता है। इस वैज्ञानिक और भौतिकवादी जीवन में हम सच्ची सुख-शान्ति एवं आनन्द से दूर होते जा रहे हैं। इसका स्पष्ट कारण है कि हम मानवीय मूल्यों, आदर्शों तथा परम्पराओं से हट और कट रहे हैं। जीवन में दानवता और पशुता बढती जा रही है।
Ved Katha 1 Part 4 (Different Types Names of one God) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha
Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik
Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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आर्य समाज का चिन्तन, दर्शन, मूल्य तथा आदर्श हमें जीवन से जोड़ते हैं। जीवन को सुख-शान्ति और आनन्दमय बनाने का उपाय बताते हैं। आर्य समाज मत, मजहब, पन्थ एवं सम्प्रदाय नहीं है। आर्य समाज एक वैचारिक चिन्तन प्रक्रिया है। जीवन पद्धति है। विचाराधारा और क्रान्ति है। एक सुधारक व्यवस्था है। इसके विचार, चिन्तन व दर्शन पूर्णता की ओर ले जाते हैं। जीवन-बोध कराते हैं। जीवन के उद्देश्य की ओर प्रेरित करते हैं। आर्य समाज मार्गदर्शक व्यवस्था है। वेदों, महापुरुषों और भारतीय संस्कृति की रक्षक शक्ति है। जैसा कि स्वामी दयानन्द ने स्वयं कहा था, मैं कोई नया पन्थ, मत व सम्प्रदाय नहीं चलाना चाहता हूँ। मैं तो ब्रह्मा से लेकर जैमिनि ऋषि तक की परम्परा को पुन: प्रकाशित, प्रचारित एवं प्रसारित करना चाहता हूँ। महर्षि दयानन्द से पूर्व जो संसार में व्याप्त अज्ञान, अविद्या, जड़ता, पाखण्ड, अनेकेश्वरवाद, जादू-टोना, भूत-प्रेत, मूर्ति-पूजा, धर्म के नाम पर बलि, कुरीतियॉं, बुराइयॉं आदि मानव समाज में फैली हुई थी उन्हें देव दयानन्द जीवन भर पत्थर-गाली, जहर और अपमान पीकर दूर करते रहे। इसीलिए उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। "आर्य" शब्द का अर्थ है जिसमें ज्ञान, गति और प्राप्ति है। तीनों शब्द अपने में सार्थंक हैं।
आर्य समाज क्या है-वर्तमान मानव जीवन को आर्य-समाज का चिन्तन, मनन, दर्शन, मान्यताएँ आदि सत्य और व्यावहारिक दिशा-बोध करा सकती हैं। क्योंकि अन्य विचारधाराओं की अपेक्षा इसका जीवन दर्शन व्यावहारिक, तार्किक, वैज्ञानिक एवं बुद्धिपरक है। किसी भी पक्ष में अन्धविश्वास, अज्ञानता, रूढिवादिता, धर्मान्धता आदि मान्य नहीं हैं। बिलकुल स्वच्छ, स्पष्ट-सत्य, सीधी-सरल मान्यताएं हैं। इसलिए आज के मानव के अधिक निकट हो सकती हैं।
आर्य समाज आस्तिक समाज है। इसकी मान्यता ईश्वर और वेद पर है। ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, सर्वाधार सर्वव्यापक, अजर, अमर, शुद्ध, बुद्ध, पवित्र, अजन्मा आदि गुणों से युक्त है। वह सृष्टि का कर्त्ता-धर्ता-संहर्ता एवं त्रिकालदर्शी है। वर्तमान संसार में परमात्मा के बारे में बड़ी भ्रान्त, पाखण्डपूर्ण व काल्पनिक बातें प्रचलित हैं। किसी का भगवान सोने-चान्दी में रहता है, तो किसी का भगवान गुफाओं में। किसी का पुजारी के ताले में, तो किसी का हवाई जहाज में। अजीब सा व्यापार चल रहा है । सबने दुकानें खोल रक्खी हैं। हर कोई दूसरों को मूर्ख बनाने में लगा है। लोग रात-रात भर जागकर जागे हुए भगवान को जगा रहे हैं । कैसी विडम्बना है? आर्य समाज का मन्तव्य है कि भगवान अपने कार्यों से संसार में हर समय प्रकट हो रहा है। वह सर्वत्र विद्यमान है। उसकी सत्ता का प्रमाण सृष्टि का कण-कण दे रहा है। देखने के लिए ज्ञान-चक्षु चाहिए। उसे अनुभव करो। वह अनुभव से ही जाना जा सकता है। उसका अहसास करो। उसकी रचना करीगरी से पहिचानो। वेद प्रमाण है :-
न तस्य प्रतिमास्ति (यजुर्वेद) उस महान परमेश्वर की कोई मूर्ति अथवा आकृति नहीं है।
वह प्रभु-कविर्मनीषी परिभू: ........ कवि है, मनीषी और स्वयं सामर्थ्यवान है। वह हमारे आपके प्रसाद का भूखा नहीं है। जिस परमात्मा ने सूर्य-चन्द्र तारे और समग्र सृष्टि का निर्माण किया, उसकी हम मूर्ति बनाएं, यह उसका उपहास है। उसकी शक्ति को सीमित करना है।
आर्य समाज तर्क और प्रमाण से वस्तु-सिद्धि पर बल देता है। अत: धार्मिक अन्धविश्वासों को नहीं मानता है। अवतारवाद, रूढिगत कर्मकाण्ड, तन्त्र-मन्त्र, कृत्रिम देवी-देवताओं आदि में विश्वास नहीं करता है। मुक्ति प्राप्ति में किसी बिचौलिए की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ, सत्यज्ञान, शुद्धाचरण से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अच्छे बुरे कर्मों का फल ईश्वर की न्याय व्यवस्था में अवश्य ही भोगना पड़ता है। स्वर्ग-नरक किसी स्थान विशेष पर नहीं है। अत्यधिक सुख की अवस्था स्वर्ग और दु:ख की अवस्था नरक है। तीर्थ-व्रत-गुरुओं आदि से पापों का क्षय नहीं होता है। जीवित माता-पिता की सेवा करना ही सच्चा श्राद्ध है। जीवात्मा अपने कर्मानुसार ही संसार को छोड़कर अगला जीवन प्राप्त करता है। कर्म से ही मानव ऊंचा उठता है और कर्म से ही पतित, निकृष्ट एवं पापी बनता है। परमात्मा की व्यवस्था में जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है और फल भोगने में परतन्त्र है। आज की नई पीढी को आर्य समाज का अमर सन्देश यही है कि अगर वह जीवन सुखी बनाना चाहती है तो आस्तिक बनें।
वेद मानव जाति की सम्पत्ति- महर्षि ने वेदों की ओर लौटो का नारा दिया। हिन्दू जाति वेदों को भूलती जा रही थी। वेदों के बारे में भ्रान्त धारणाए फैली हुई थीं। वेदों को शंखासुर पाताल लोक ले गया है। एक विशेष वर्ग के अतिरिक्त न कोई उन्हें देख सकता था न सुन सकता था, पढने की बात तो अलग रही। स्त्रियॉं, शूद्र और पतित वेदों और यज्ञों के पास नहीं जा सकते थे। वेदों के जो भाष्य किए गए वे अश्लील, काल्पनिक व भ्रान्त धारणाओं से भरे हुए थे। इससे वेदों की प्रतिष्ठा को बड़ा आघात पहुंचा।
आर्य समाज ने वेदों के द्वार सर्वसाधारण के लिए खोल दिए। जाति, वर्ग, नस्ल, रंग, मजहब, सम्प्रदाय आदि के आधार पर वेदों पर किसी का अधिकार नहीं है। वेद मानव-जाति की सम्पत्ति है। परमात्मा ने सृष्टि के आदि में प्राणी-मात्र के कल्याण के लिए वेद का पवित्र ज्ञान ऋषियों को दिया। इसीलिए वेदों में किसी जाति-वर्ग-देश आदि का नाम नहीं है। आज सभी को वेद पढने का अधिकार है। सभी को यज्ञोपवीत धारण करने का हक है। आर्य समाज की मान्यता है-"वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। अत: मानव जीवन के लिए वेद प्रत्येक-क्षेत्र में मार्ग-दर्शक हैं । वेद जीवन के प्रत्येक-क्षेत्र में यही भावना, चेतना व सन्देश देते हैं कि मानव! तू मानव बन जा। बुद्धि, विचार व विवेक पूर्वक तू सृष्टि का उपभोग कर। तू परमात्मा की श्रेष्ठ सन्तान है। मानव के सुधार से ही सृष्टि सुखी-निर्भय व हिंसा रहित हो सकती है। चारों वेदों में सर्वत्र-विश्व-कल्याण-कामना, प्राणी मात्र पर दया की भावना, सर्वत्र स्वस्ति और शान्ति की भावना मिलती है। वेद सुखी, दीर्घायु तथा चिन्तारहित जीवन व्यतीत करने का रास्ता बताते हैं। इसीलिए कहा है-सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु। सभी दिशाएं मेरी मित्र बन जाएं। इदन्न मम । यह समस्त जगत् के पदार्थ परमात्मा के दिए हुए हैं। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है। तेन त्यक्तेन भुंजीथा: । संसार का भोग त्यागपूर्वक करो। यदि इस कथन को संसार जीवन और जगत् में व्यवहार रूप में अपना ले, तो आज संसार पर तृतीय महायुद्ध के जो काले, घने और भयंकर बादल मंडरा रहे हैं, उसका एक मात्र निदान त्यागपूर्वक जीवन ही है। सब झगड़े समाप्त हो जायेंगे। अत: वर्तमान जीवन के लिए आर्य समाज का वैदिक-चिन्तन प्रत्येक दिशा में मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ व पूर्ण है।
अतीत गौरव का स्मरण आवश्यक- वैदिक चिन्तन वर्तमान मानव को अपनी सांस्कृतिक विरासत, आदर्श मर्यादाओं और गौरवपूर्ण इतिहास की ओर सचेत व प्रेरित करता है। जो मानव, समाज, राष्ट्र एवं जाति अपने गौरवपूर्ण साहित्य और इतिहास को भुला देती हैं, उस जाति एवं समुदाय का निश्चय ही शीघ्र पतन हो जाता है। आज हम अपना इतिहास, वेशभूषा, खान-पान एवं भाषा को भूलते जा रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम है कि नई पीढी को अपने साहित्य, संस्कृति, आदर्शों एवं महापुरुषों पर कोई श्रद्धा और लगाव नहीं है। आर्य समाज हिन्दू जाति को जागृत तथा आगाह करता है कि हमारी संस्कृति-इतिहास एवं साहित्य महान है। हम साहित्य-इतिहास एवं संस्कृति के द्वारा बहुत कुछ सीख और सिखा सकते हैं। हमारे उत्सव, संस्कार, व्रत, यज्ञ आदि मानवता का पाठ पढाते हैं। ज्ञान-कर्म-उपासना की त्रिवेणी मानव-मात्र को पूर्णता की ओर ले जाने में सक्षम है। यज्ञ-विधान सभी कामनाओं का पूरक है। इसकी उपयोगिता, वैज्ञानिकता, सार्थकता और व्यवहारिकता सारा संसार स्वीकार करता है। हमारी वर्ण-व्यवस्था सभी को अपना कर्म-व्यवसाय चुनने की पूर्णत: स्वतन्त्रता देती है। मनुष्य कर्म से देवता बन सकता है और कर्म से ही राक्षस बन सकता है। हमारी राष्ट्रीय-चेतना में कहीं भी संकीर्णता, जातीयता, क्षेत्रवाद और पक्षपात नहीं है। सभी मानव बराबर हैं। यहॉं तो "सर्वे भवन्तु सुखिन:", "वसुधैव कुटुम्बकम्" की विशाल चेतना व्याप्त रही है। आज का मानव-समाज अपने अतीत से बहुत कुछ प्रेरणा चेतना एवं भावना ले सकता है। प्राचीनता एवं नवीनता का सुन्दर समन्वय आर्य-संस्कृति की प्रमुख विशेषता रही है।
आर्य संस्कृति की महत्ता- वैदिक-संस्कृति मानव-निर्माण में खान-पान, रहन-सहन, विचार-चिन्तन, व्यावहारिक-स्वच्छता आदि पर विशेष बल देती है। जबकि अन्य विचार धाराएं इस ओर कोई विशेष महत्व एवं बल नहीं देती हैं। वैदिक मान्यता है कि जैसा मनुष्य का भोजन होगा वैसे ही उसका मन, विचार, भावना एवं कर्म होंगे। आहार की शुद्धि से ही बुद्धि की पवित्रता व धार्मिकता स्थिर रह सकती है। अत: आर्य समाज का मानना रहा है कि मनुष्य का भोजन और रहन-सहन सरल, सात्विक, धार्मिक एवं पवित्र होना चाहिए, तभी मानव देवत्व की ओर बढ सकता है। आज के मानव-जीवन में अनेक प्रकार के विचार, दूषित खान-पान, विलासी रहन-सहन, आडम्बरपूर्ण जीवन-चर्या, नास्तिकता, चरित्र हीनता आदि दुर्गण बड़ी तेजी से आ रहे हैं। इन्हें किस तरह से दूर किया जा सकता है? इनसे छूटने के क्या उपाय हैं? इनसे क्या हानियॉं हो सकती हैं आदि समस्याओं का समाधान केवल वैदिक विचारधारा ही दे सकती है। अत: आज के जीवन में आर्य संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका व उपयोगिता है। इसी से जीवन स्वस्तिकारी बन सकता है । -डॉ. महेश चन्द्र विद्यालंकार
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What is Arya Samaj- The thinking, contemplation, philosophy, beliefs, etc. of Arya Samaj can give current human life a real and practical direction. Because its life philosophy is practical, logical, scientific and intelligent than other ideologies. Superstition, ignorance, orthodoxy, bigotry etc. are not acceptable in any aspect. There are absolutely clean, clear-truth, simple-minded beliefs. Therefore may be closer to today's human.
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स्वामी दयानन्द द्वारा वेद प्रचार स्वामी दयानन्द सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले पड़े थे। पूरे देश का भ्रमण करते हुए मिलने वाले सभी गुरुओं की संगति व सेवा करके अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। वह सिद्ध योगी बने और उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण पद्धति,...
निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...