भारत के स्वाधीनता संघर्ष में क्रान्तिकारियों की भूमिका उल्लेखनीय रही है। आर्य समाज तथा महर्षि दयानन्द की विचारधारा का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से इन क्रान्तिकारियों पर पड़ा। ऐसे क्रान्तिकारियों की एक लम्बी श्रृंखला है, जिन्होंने स्वराज्य की उत्कृष्टता तथा स्वदेशाभिमान का पाठ महर्षि दयानन्द की पाठशाला में ही पढा था। महर्षि दयानन्द की विचारधारा से प्रभावित प्रमुख उग्रवादी व क्रान्तिकारियों में श्यामजी कृष्ण वर्मा, लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, यशपाल, चन्द्रशेखर आजाद, ठाकुर रोशनसिंह, विष्णुशरण दुबलिश, भाई परमानन्द, पण्डित जयचन्द्र, भूपेन्द्र दत्त, धन्वन्तरि, लाला काशीराम, लेखराम, महाशय कृष्ण, महाशय वीरेन्द्र, मुंशीराम शर्मा "सोम", विनायक दामोदर सावरकर, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार अजीतसिंह, पृथ्वीसिंह, भाई बालमुकुन्द, लाला हरदयाल, शहीद यतिनदास, राजेन्द्रलाडिड़ी, गणेश दामोदर सावरकर, कन्हायीलाल तथा वारीन्द्रकुमार घोष आदि उल्लेखनीय हैं।
महर्षि दयानन्द ने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंक कर स्वराज्य की स्थापना की सुस्पष्ट उद्घोषणा की। उन्होंने भारतीय नवजागरण काल अर्थात् धार्मिक अथवा सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन के युग में ही स्वराज्य को प्रथम आदर्श घोषित किया। स्वराज्य का ये आदर्श न केवल नवजागरण काल में क्रान्तिकारी रूप में प्रकट हुआ, वरन् इस आदर्श ने उदारवादियों के लिये दूरगामी, उग्रवादी तथा क्रान्तिकारियों के लिए तात्कालिक तथा गांधीवादी युग के लिये आन्दोलन के आधार रूप में स्पष्ट सन्देश दिया।
महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज ने जनता में स्वशासन की आकांक्षा तथा राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न की। स्वाधीनता संघर्ष में गान्धी युगीन आन्दोलन ने अछूतोद्धार, मद्यनिषेध, स्त्री शिक्षा, सामाजिक समरसता, कुरीति निवारण, स्वदेशी एवं राष्ट्रीय शिक्षा आदि के आग्रह के रूप में जिस मार्ग का अवलम्बन किया, उसकी आधार भूमि लगभग अर्द्धशतक पूर्व महर्षि दयानन्द ने ही तैयार की थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों तथा मन्तव्य का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। स्वराज्य के सर्व प्रथम उद्घोष, स्वदेशी तथा स्वाभिमान के सन्देश, समाज सुधार, दलितोद्धार, सामाजिक एकता के स्थापत्य तथा अस्पृश्यता के निवारण आदि सम्बन्धी उनके विचारों को देश के प्राय: सभी वर्गों तथा राष्ट्रवादियों द्वारा स्वीकार किया गया। इस प्रकार ये सुस्पष्ट होता है कि केवल आन्दोलन की क्रान्तिकारी धारा पर ही नहीं, अपितु राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रतिपल संघर्ष पर महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का सुस्पष्ट प्रभाव पड़ा।
क्रान्तिकारी आन्दोलन के समकालीन उग्रवादी आन्दोलन के प्रमुख सुत्रधार "लाल, बाल, पाल" के नाम से सुविख्यात लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक तथा विपिनचन्द्रपाल के स्वराज्य सम्बन्धी आग्रह पर महर्षि दयानन्द का ही प्रभाव था। इसी कारण उन्होंने कलकत्ता कांग्रेस के अधिवेशन (1906) में राष्ट्रीय शिक्षा, स्वदेशी तथा स्वराज्य का समर्थन किया।
कांग्रेस के इतिहास लेखक डॉ. पट्टाभिसीतारमैय्या के शब्दों में- "स्वराज्य के जो स्वर 1906 ई. में कांग्रेस के मंच पर मुखरित हुये, उसकी सम्पूर्ण योजना और कार्यक्रम आर्यसमाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में ही देशवासियों को दे दी थी।" भारतीय राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में क्रान्तिकारियों की जो स्पष्ट सोच और दिशा थी उसके मूल में महर्षि दयानन्द के स्वराज्य तथा स्वाधीनता सम्बन्धी उग्र विचार थे। इन्द्र विद्या वाचस्पति के अनुसार "सन् 1857 की क्रान्ति के पश्चात् उन महापुरुषों की सूची में जिन्हें हम उस क्रान्ति के मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्तराधिकारी कह सकते हैं, पहला नाम महर्षि दयानन्द सरस्वती का है।"
महर्षि दयानन्द क्रान्तिकारी आन्दोलन के अग्रदूत थे। उनके योगदान की समीक्षा करते हुए इन्द्र विद्यावावस्पति ने लिखा है कि "राजनीति में स्वामी दयानन्द को नवीन राष्ट्रीयता का अग्रदूत कहें तो अत्युक्ति न होगी, उन्होंने अपने मुख्य ग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश" में स्वराज्य, स्वदेशी, स्वभाषा और स्वदेश के पक्ष में जो स्पष्ट विचार प्रकट किये थे, वह भारत की राजनीति में 1906 से पहले व्यक्ति रूप में नहीं आये थे, व्यावहारिक रूप में उनका प्रयोग तो बंग विच्छेद के पश्चात ही हुआ है।"
महर्षि दयानन्द स्पष्ट रूप से स्वराज्य के प्रबल समर्थक थे। वे पुनर्जागरणकालीन सुधारकों तथा उदारवादियों के समान केवल सुधारवाद अथवा औपनिवेशक शासन के पक्षधर नहीं थे। भारत की दुर्दशा, गुलामी तथा हीनता पर आंसू बहाते हुए दु:खी हृदय से ऋषिवर लिखते रहे कि "विदेशियों के आर्यावर्त्त में राजा होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढना-पढाना, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषणादि कुलक्षण वेद विद्या का अप्रचारादि कर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है।" इसीलिए स्वामी दयानन्द ने स्पष्ट रूप से भारत में अंग्रेजी शासन के अन्त का आह्वान किया। उन्होंने सम्राट के प्रति निष्ठा, भक्ति तथा ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति श्रद्धा रखने वालों को सदैव तिरस्कृत किया। यहॉं तक कि वेद भाष्यों में भी उनके दर्शन का क्रान्तिकारी स्वरूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में विदेशीराज्य की समालोचना करना परम आस्तिक, प्रखर देशभक्त, निजगौरव तथा स्वदेशाभिमान के पुतले, परम साहस के प्रतीक, भारत माता के सच्चे सपूत दयानन्द के अतिरिक्त और किसका काम हो सकता था? उस ऋषि ने ही सर्वप्रथम उस काल में सार्वभौमिक चक्रवर्ती साम्राज्य के रूप में आर्यों के प्राचीन गौरव, महिमा एवं समृद्धि का वर्णन कर भारतीयों के हृदय, मन तथा मस्तिष्क को स्वतन्त्र, स्वाभिमान एवं गौरव प्राप्ति की दिशा में प्रखर चिन्तन के लिए प्रेरित किया। सत्यार्थ प्रकाश के 11 वें समुल्लास के अन्त में महर्षि ने आर्य राजाओं की नामावली देकर आर्यों को उनके प्राचीन गौरव की झलक दिखाते हुए उसकी पुन: प्राप्ति के लिये मर मिटने की तमन्ना व तीव्र अभिलाषा परोक्ष रूप में उत्पन्न की थी।
महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने वेदभाष्य में लिखते हैं- "हे महाराजाधिराज ब्रह्मन् ! अखण्ड चक्रवर्ती राज्य के लिये शौर्य, धैर्य, नीति, विनय, पराक्रम और बलादि उत्तम गुणयुक्त कृपा से हम लोगों को यथावत् पुष्ट कर। अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी न हों तथा हम लोग कभी पराधीन न हों।" महर्षि की इन्हीं विचारधाराओं के कारण ही भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन व प्रमुख क्रान्तिकारियों पर महर्षि दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं और आर्यसमाज का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। - आचार्य डॉ.संजय देव
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Maharishi Dayanand made a clear announcement to establish Swarajya by overthrowing British rule. He declared Swarajya as the first ideal in the Indian Renaissance period, ie in the era of religious or social reformist movement. This ideal of Swarajya not only appeared in a revolutionary form in the Renaissance period, but this ideal gave a clear message to the liberals as far-reaching, extremist and revolutionaries for immediate and Gandhian era as the basis of movement.
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स्वामी दयानन्द द्वारा वेद प्रचार स्वामी दयानन्द सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले पड़े थे। पूरे देश का भ्रमण करते हुए मिलने वाले सभी गुरुओं की संगति व सेवा करके अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। वह सिद्ध योगी बने और उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण पद्धति,...
निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...