जिस प्रकार ईश्वर भक्त, पितृभक्त होते हैं उसी प्रकार राष्ट्रभक्त होते हैं। राष्ट्र किसी भूखण्ड मात्र का नाम नहीं अपितु उस भूखण्ड में प्रवाहित होने वाली नदियॉं, पर्वत, पशु-पक्षी, मनुष्य, कानून, भाषा, वेश, आचार-विचार आदि सब कुछ मिल कर राष्ट्र हैं। उसके प्रति निष्ठावान व्यक्ति ही राष्ट्रभक्त है।
हम उसी राष्ट्रभक्त की परिभाषा रूपी कसौटी पर महर्षि दयानन्द को रखकर देखना चाहते हैं कि इन सबके प्रति उनका क्या भाव है?
हम देखते हैं कि महर्षि दयानन्द जी का जन्म एक अहिन्दी भाषी क्षेत्र में हुआ था। किन्तु सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बान्धने वाली हिन्दी भाषा का उन्होंने समर्थन किया और अपने ग्रन्थों की रचना हिन्दी भाषा में की, जिसको वे आर्य भाषा कहते थे। हिन्दी भाषा की रक्षा वे संस्कृत से समझते थे। अत: संस्कृत के प्रचार के लिये उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे, जिनमें "वेदाङ्ग प्रकाश" के अतिरिक्त "संस्कृत वाक्य प्रबोध" आदि मुख्य हैं, जिनके द्वारा उन्होंने राष्ट्र एवं संस्कृति तथा संस्कृत के उत्थान के लिए प्रेरित किया है। ऋषि दयानन्द उन विशिष्ट राष्ट्रभक्तों में से थे, जिन्हें अपने राष्ट्र के मनुष्यों का तो क्या, जूते का अपमान भी सहन नहीं हो सका और "सत्यार्थ प्रकाश" के एकादश समुल्लास में प्रश्नोत्तर देते हुये उन्होंने लिखा है "देखो (योरोपियन लोग) अपने देश के बने हुये जूतों को कार्यालय और कचहरी में जाने देते हैं, इस देश में बने जूते को नहीं। इतने में ही समझ लो कि वे अपने देश में बने जूते की जितनी मान-प्रतिष्ठा करते हैं उतनी अन्य देशस्थ मनुष्यों की भी नहीं करते।" आगे उन्होंने और भी लिखा -
"देखो, कुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में आये यूरोपियनों को हुये हैं और आज तक ये लोग मोटे कपड़े आदि पहनते हैं, जैसा कि स्वदेश में पहिनते थे। परन्तु उन्होंने अपने देश का चाल-चलन नहीं छोड़ा, और तुम में से बहुत से लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया।"
इसी समुल्लास में अपने राष्ट्र के महापुरूषों की अवमानना देखकर उन्होंने लिखा- "ऋषि-महर्षियों के किये उपकारों को न मानकर ईसा आदि के पीछे झुक पड़ना अच्छा नहीं। और ब्रह्मा से लेकर पीछे-पीछे आर्यावर्त्त में बहुत से विद्वान हो गये हैं। उनकी प्रशंसा न करके यूरोपियन ही की स्तुति में उत्तर पड़ना पक्षपात और खुशामद के अतिरिक्त और क्या कहा जाये।" पुन: अपने सांस्कृतिक चिह्नों का परित्याग करने वालों को उपालम्भ देते हुए उन्होंने लिखा-"और जो विद्या का चिह्न यज्ञोपवीत तथा शिखा को छोड़ मुसलमान-ईसाइयों के सदृश बन बैठना, यह भी व्यर्थ है। जब पतलून आदि वस्त्र पहिनते और तमगों की इच्छा करते हो तो क्या यज्ञोपवीत आदि का कुछ बड़ा भार हो गया था।" सत्यार्थ प्रकाश-एकादश सम्मुलास में ही एक स्थान पर तो राष्ट्र प्रशंसा में वे लिखते हैं कि- "यह आर्यावर्त्त देश ऐसा है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं...। परन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लोहे रूपी दरिद्र विदेशी छूने के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।" उनका यह उद्गार उनके रोम-रोम में राष्ट्रभक्ति पूर्ण थी इसका प्रबल प्रमाण है। स्वामी महाराज ने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में ही अपनी अतुलनीय राष्ट्रीय भावना को एक स्थान पर इस प्रकार लेखबद्ध किया है -
"जो संस्कृत विद्या को नहीं पढे वे भ्रम में पड़कर कुछ का कुछ बकते हैं। उनका बुद्धिमान लोग प्रमाण नहीं कर सकते। और जितनी विद्या भूगोल में फैली है वह सब आर्यावर्त्त देश से मिस्र वालों, उनसे यूनानी, उनसे रूम (रोम) और उनसे यूरोप देश में उनसे अमेरिका आदि देशों में फैली है।"
"...देखो। कि एक जैकालयट साहब पैरिस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी बायबिल इन इंडिया में लिखते हैं कि सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्यावर्त्त देश है और सब विद्या और मत इसी देश से फैले हैं और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्यावर्त्त देश की पूर्वकाल में थी वैसी हमारे देश की कीजिए, लिखते हैं उस ग्रन्थ में देख लो। तथा दाराशिकोह बादशाह ने भी यही निश्चय किया था। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषायें पढीं परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निसन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है। देखो काशी के "मानमन्दिर" में शिशुमारचक्र को कि जिसकी पूरी रक्षा भी नहीं रही है तो भी कितना उत्तम है कि जिसमें अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है।"
".... परन्तु शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया है कि अब तक भी वह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया।" (एकादश समुल्लास, सत्यार्थ प्रकाश)
इन लेखों से ऋषि दयानन्द की आन्तरिक राष्ट्रभक्ति परिलक्षित होती है और उन्हें अपने राष्ट्र के महापुरूषों से लेकर वेश-भाषा-चाल-चलन से प्रगाढ प्रेम था, इसको व्यक्त करती है। वे अपने राष्ट्र के उत्थान में विश्व का कल्याण एवं उत्थान देखते थे। भारत राष्ट्र के उत्थान के बिना मानव समाज उन्हें असुरक्षित दृष्टिगोचर होता था।
वर्तमान समय में पाश्चात्य सभ्यता के झंझावात से अपनी सभी राष्ट्रीय अस्मितायें विचलित हो रही हैं। जीवन असुरक्षित एवं नैराश्यपूर्ण हो चुका है। ऐसी स्थिति में अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए आज से लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व बताए उस महान दूरदर्शी राष्ट्रभक्त के पद-चिह्नों पर चलने की आवश्यकता है। अन्यथा हमारा अस्तित्व भी रह पायेगा, अब इसमें सन्देह है। क्योंकि अब अपने देश के लोग ही स्वार्थान्ध होकर इस देश-धर्म को नष्ट करने में लगे हैं। अत: उस महान् राष्ट्रभक्त दयानन्द के विचारों को आत्मसात कर आगे बढें। इस समय आत्म रक्षा का एकमात्र यही उपाय है। - आचार्य डॉ.संजय देव
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"Those who do not study Sanskrit, they fall into confusion and say something to them. Their intelligent people cannot prove it. And the knowledge spread in geography is all Egyptians from the Aryavarta country, Greek from them, room (Rome) and from them Europe extends from them to other countries like America. "
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स्वामी दयानन्द द्वारा वेद प्रचार स्वामी दयानन्द सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले पड़े थे। पूरे देश का भ्रमण करते हुए मिलने वाले सभी गुरुओं की संगति व सेवा करके अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। वह सिद्ध योगी बने और उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण पद्धति,...
निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...