जब केवल आत्मा शेष रहता हैं जिसे हम दूसरे शब्दों में मुक्ति की अवस्था भी कहते हैं, उस समय का कोई अस्तित्व नहीं रहता। चाहे शरीर स्थूल या सूक्ष्म, जब आत्मा प्रिय और अप्रिय स्थिति से दूर हो जाता है, उस समय वह शरीर के बन्धनों से पूरी तरह से मुक्त हो जाता है। वास्तव में शरीर से मुक्त होना ही मुक्ति है। अतः मुक्ति की अवस्था में किसी प्रकार के शरीर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शरीर सहित मुक्ति सम्भव नहीं है और न मुक्ति में मुक्ति लोक का शरीर मिलता है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि ऐसा मानने पर मुक्ति भी एक प्रकार का बन्धन हो जाएगी और फिर मुक्ति और बन्धन का भेद समाप्त हो जाएगा। अतः उक्त स्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
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समस्त विद्याएं भारत से संसार में फैले विभिन्न मतमतान्तरों का स्त्रोत भारत देश ही रहा है। संस्कृत की महिमा में महर्षि दयानन्द ने दाराशिकोह का एक उदाहरण दिया है। दाराशिकोह लिखता है कि मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषाएं पढी, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूटकर आनन्द नहीं हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब...
स्वामी दयानन्द द्वारा वेद प्रचार स्वामी दयानन्द सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले पड़े थे। पूरे देश का भ्रमण करते हुए मिलने वाले सभी गुरुओं की संगति व सेवा करके अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। वह सिद्ध योगी बने और उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण पद्धति,...
निर्णय लेने की प्रक्रिया में समय की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जो निर्णय समय रहते ले लिए जाते हैं और आचरण में लाए जाते हैं, वे अपना आश्चर्यजनक परिणाम दिखाते हैं। जबकि समय सीमा के बाहर एक सेकण्ड का विलम्ब भी भयंकर हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है। इसलिए फैसले लेने के लिए सही समय पर...